Friday, January 1, 2010

अपनी तलाश में- 3


रूद्रप्रयाग जा रही रोडवेज की खटारा बस की सीट के नीचे बैग रख रहा था कि कातर भाव से आकाश ताकते दादा पर नजर पड़ी. कई दिन बाद अचानक याद आया कि उन्हें हार्निया है, डाक्टरों के कहने के बावजूद जिसका आपरेशन वे कई साल से कभी खर्चा, कभी काटा-पीटी का डर, कभी अब कितने दिन बचे हैं के बहानों से टालते आ रहे थे. वह बस के दरवाजे की पहली सीढ़ी से झटका खाकर उतरने के बाद अपने साबुत हाथ से जोर देकर, धीरे- धीरे अपने पेट के निचले हिस्से को सहलाते हुए खांस रहे थे. पहली बार मुझमें अपराध का भाव भरने लगा यह मैं उन्हें कहां लिए जा रहा हूं। मैने कहा- रहने दीजिए, लौट चलिए वहां हर दस कदम पर आयरन करना पड़ेगा. खांसी पर काबू पाकर, सायास खिलायी मुस्कान के साथ उन्होंने अपना दूसरा हाथ मुंह के सामने उठाकर हिलाया जिसका मतलब था पंजा लड़ाओगे। उनका एक हाथ जन्म से कमजोर था और उस पर एक आंदोलन, जिसका नारा था- यूपी के तीन चोर, मुंशी, गुप्ता, जुगुलकिशोर, के दौरान लाठी भी पड़ चुकी थी. गुप्ता, पूर्व मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता यानि टप्पू उर्फ बसपा के बनिया नेता और उद्योगपति अखिलेश दास गुप्त के पिता के किस्सों का उनके पास खजाना था.
बस चलने के आधे घंटे तक बच्चा भाव से अच्छा-अच्छा चला। सामने क्या देवदार के पेड़ दिख रहे हैं। नहीं-अच्छा। क्या वहां ठंड बहुत तो नहीं होगी। नहीं-अच्छा। पहाड़ के रास्ते पर हैं कहीं ड्राइवर खाई में तो नहीं गिरा देगा। नहीं-अच्छा।
उन्हें खिड़की के पास बिठाकर मैं पीछे जाकर बस के खलासी से गपियाने लगा। अब उनका पजेसिव भाव जगा और खड़े होकर पूरी बस को सुनाते हुए बोले- सुनिए मिस्टर आप हमारे टूर आपरेटर नहीं है, हम लोग साथ घूमने जा रहे हैं इसलिए यहां आकर मेरे पास बैठिए। मेरे सामने वैसा करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। श्रीनगर से थोड़ा पहले एक ढाबे पर मैने खलासी के भी खाने के पैसे दे दिए तो फिर वे उखड़े और सीधे उससे बोले- इनके पास खुद भूंजी भांग नहीं है और कांग्रेसियों की तरह कांस्टीच्युएंसी बना रहे हैं. आप अपने पैसे खुद दीजिए। खलासी आत्मसम्मान बचाने के लिए ड्राइवर होने के रास्ते पर था उसने सहज हंसते कहा दादाजी हमने कब कहा कि हम गंगू तेली नहीं हैं। रास्ते में श्रीनगर यूनिवर्सिटी के सामने बस थोड़ी देर को हमने देश की शिक्षा व्यवस्था कस-कस कर कई लातें लगाईं, मास्टरों को चोर वगैरा बताया, पहाड़ के कई छात्र नेताओं के नाम याद करते हुए लड़के-लड़कियों के कैरियरिस्ट, नापोलिटिकल और जूजू हो जाने पर थोड़ा अफसोस जाहिर किया बाकी घुमावदार, हरी ठंडक थी जिसने शांति व्यवस्था कायम रखने में भरपूर योगदान दिया।

जब रूद्रप्रयाग पहुंचे तो दिन तकरीबन ढल चुका था और गुप्तकाशी से आगे हमारी मंजिल की तरफ जाने वाली आखिरी बस आंखों के सामने निकल गई। हम लपके लेकिन दिन भर बैठे रहने के कारण जोड़ जाम हो चुके थे और बस, बस सरक ही गई।

पहाड़ मे पहला दिन मैं सेलीब्रेट करना चाहता था लेकिन दादा किसी और गुनताड़े में थे. अभी आया कह कर निकल लिए। बस अड्डे पर मैने तीन चाय पी, घुन लगी मठरियां अखबार में लपेट कर दादा के बैग में रखने के बाद उसे दुकानदार के हवाले करने के बाद कस्बे की इकलौती दारू की दुकान लोकेट की, पुल पर जाकर नदी देखी तब कहीं जाकर वह प्रकट हुए इस खबर के साथ कि चलो एक आलीशान होटल मिल गया है। सामान रख कर फिर घूमा जाएगा। यह एक घर के ऊपर अधबना लॉज था जिसकी दीवारों पर उसका मालिक टोपी लगाए तराई कर रहा था। जो कमरा हमें मिला शायद उसका फर्श एक हफ्ता पहले ही बना था। किराया तीस रूपए।
मैने कहा दादा आपने तो कमाल कर दिया इसलिए सौ रूपए ढीले कीजिए ताकि दारू का बंदोबस्त किया जा सके। आपने दो सौ रूपए का शुद्ध मुनाफा कमाया है। दादा हल्के गरूर के साथ बोले कि कम्युनिस्ट राजनीति जो व्यावहारिकता सिखाती है उसमें से एक यह भी हैं. और यह मुनाफाखोरी नहीं सिर्फ सीमित संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए शोक को शक्ति में बदलने की कला है। मिडिल क्लास बोरजुआजी की तरह हद से हद इसे बचत कह सकते हो। लंबी झिकझिक के बाद पचास रूपये मिले।

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