Friday, January 1, 2010

अपनी तलाश में- 4


अब थोड़ी देर के लिए रूद्रप्रयाग देखने की बारी मेरी थी। अनायास कस्बे के इकलौते सिनेमा के सामने पहुंच गया जहां कोई बीस साल पुरानी कुली चल रही थी और सामने जाली के भीतर ठेका था। हाल में ही शराब की बढ़ा दी गई कीमतों की लाचारी पियक्कड़ों की आंखों में दिखती थी।
मेरा ध्यान गया कि उस ठेके में अंग्रेजी की बोतलों की चहारदीवारी में कहीं खांटी देस दिखाई दे रहा था। एक बल्ब के होल्डर पर लाल लंगोट टंगा हुआ था, जिसके नीचे एक लड़का बैठा किताब पढ़ रहा था। शायद पहलवान के सपनों का यह सबसे शुरूआती सीन हुआ करता होगा। दीवार में काली की मूर्ति थी जो शराब के ठेकेदार पर सदा सहाय रहा करती होंगी। मूर्ति के बगल में एक चटका शीशा और एक मैल भरी कंघी थी जो दिन में कई बार लड़के के बाल संवारा करती होगी। एक पहलवान टाइप आदमी काउंटर पर बैठा था और उसका एक साथी वहीं बैठा बिना बेंट के एक अनगढ़ चाकू से आलू-टिंडे काट रहा था। चाकू की बेंट पर सुतली बड़े जतन से लपेटी लगती थी। यह माइनस जनाना गृहस्थी के बीच चलता सुख का कारोबार था और जाली के इस पार इत्मीनान से खड़ी भीड़ थी। क्या पता कोई जनाना या लड़के की मां भी हो जो ठेके का शटर गिरने के बाद दृश्य में प्रवेश पाती हो।
पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि ज्यादातर लोग अंदर रखी बोतलों को देखने दूर-दूर के गांवों से चलकर आए हैं। देख रहे हैं, देखे जा रहे हैं। अचानक एक हिलती है जो बाहर आकर मिलना चाहती है। फिर झुरझुरी होती है-बेवकूफ याद कर नत्थू लाल की मूंछों को ग्लैमराइज करने के बाद वाले उस गाने में अमिताभ बच्चन क्या कहता था-नशा शराब में होता तो नाचती बोतल। कहा था कि नहीं।

रम का एक क्वार्टर, उस शाम हम लोगों के लिए काफी था।

दुर्गा दादा के कान गरम हों और कोई जरा इसरार, फिर इसरार करे तो अपनी भयानक आवाज में कोई पुरानी बंदिश काहे को मोरा जिया लै ले, काहे को मोरा जिया दै दे गा दिया करते थे। मैं कहा करता था रोमांटिक मूड में भेड़िया- फिर भी कोई बात थी। वे गाते तो लगता था कि कोई काठ पर लिखा प्रेम-पत्र पढ़ रहे हैं जिसका सार यह है कि जियरा के लेन-देन के गदेलेपन में क्यों पड़ते हो। अब तक जितने पड़े उन्होंने तकिए भिगोने, सुखाने, भिगोने के अलावा क्या किया। अपनी पर आ जाएं तो वे एक अवधी का बड़ा मारू गीत गाते थे जिसे सुनते हुए सीपिया टोन की एक फोटो भीतर बनने लगती थी- कोई जालिम जमींदार है जिसकी मूंछे झुकी हुई हैं, जिसे रस्सी से बांध कर गरीब-गुर्बा लोग काली माई के चौरे पर बकरे की तरह बलि देने के लिए लाए हैं। वे नाच-गा रहे हैं। यह मनौती जिस लाल रंग के झंडे के नीचे मानी गई थी वह नए जमींदार की तलाश में नए गांव की तरफ निकल गया है।
मिर्च काटने के बाद उन्होंने सिसकी ली, होंठ से नाक के बीच एस के आकार की एक झुर्री फड़कने लगी यानि आज काहे को मोरा जिया....कहीं भीतर से चल चुका था। बस आने वाला था। सिसकी कई खतरों की एक साथ पूर्व सूचना थी। मैने बाकी माल एक बोतल में पानी लबालब भर कर जेब के हवाले किया और उनका हाथ पकड़ कर लॉज से बाहर निकल आया चलिए दादा, आज जरा पहाड़ की रात देखते हैं।

रात के साढ़े दस बजे, सोनप्रयाग के रास्ते पर अलकनन्दा के पुल के आगे हाहाकार करता एक कैलेंडर टंगा हुआ था। ऊपर एक अकेला चीड़ का पेड़ था, चांद का विशाल गोला उठा, जल गया। एक-एक पत्ती हीटर के एलीमेंट के घुमाव पर टंगी दहकने लगी। नीचे हहराती नदी थी, लहरों का फेन था और पुल के खंभों की थिरकती परछाई। एक दम हूबहू कैलेंडर। किसी फोटोग्राफर के हुनर का सबूत। कहीं आसपास एक रातरानी का झाड़ था जिसकी महक उड़-उड़ कर शोर के साथ चली आती थी। नदी के कगार पर जैसे-तैसे टिके दुकानों के पिछवाड़े चांदनी में चमक रहे थे। प्लास्टिक, चिथडों से ढके गलते पटरे जिनसे पानी टपक रहा था। लगा ये दुकानें अब गिरी कि तब गिरीं।

-आपने देखा है इन दुकानों में काम करने वाले छोकरों को किसी बात पर अचरज नहीं होता। आंख तक नहीं झपकती?

-अरे, सालों के पेट में दाढ़ी है। हमको-तुमको बाजार में बेच खांएं।

पुल से ऊपर सीढ़िया थी जो अंधेरे में बुग्यालों के बीच से किसी गांव की तरफ जाती थी। इतनी रात भी कोई सायकिल कंधे पर लादे चढा आ रहा था। हम वहीं बैठ गए। उस पार पीली रोशनी वाली खिड़कियों में लोग सिनेमा के लोगों की तरह नजर आ रहे थे। पार्श्व में उनकी गृहस्थी थी। अलकनंदा का संगीत था और संवाद हमारे। हम अंधेरे में बैठकर घुटकी लेते उन्हें देख रहे थे।

-देखना वह बुड्ढा जो कुर्सी से उठकर खड़ा हुआ है अभी दो-तीन बार ऊपर-नीचे हाथ हिलाएगा और फिर वहीं जाकर बैठ जाएगा। वो लड़की जो किताब लिए इतराती घूम रही है देखना तब तक घूमती रहेगी जब तक सामने वाली खिड़की में बत्ती जलती रहेगी। लड़के-लड़कियों के कुल पंद्रह-बीस टाइप के सपने होते हैं वहीं सभी बारी-बारी से देखते हैं और इसी तरह इतराते हैं। वह औरत अभी कुल नौ बार अलग-अलग जगहों पर टंगे कपड़े छुएगी और थोड़ी देर बाद फिर छूने आएगी। मेरी बात गलत निकल जाए तो बताना। तुम्हें पता है वो आदमी जो अपनी बीबी के साथ बैठा चाय या कुछ पी रहा है, वह इस समय सोच रहा होगा कि यह जो कटिया मार कर बिजली जला रखी है, कहीं छापा तो नहीं पड़ जाएगा। हम लोगों के सारे निष्कर्ष सच निकले और खिड़कियों की एक-एक कर बत्तियां बुझने लगीं। शो खत्म होने पर कई घुटकियों और अंधेरे में कुछ ज्यादा विकसित संतोषप्रद अपनी-अपनी मुस्कानों के बाद तय पाया गया कि दुनिया फिलहाल कई हजार सालों से बेहद तुच्छ कामों में तल्लीन जा रही है और सोने से पहले पुल तक जाकर एक बार और रातरानी की महक ली जाएगी। जो नहीं मिली। पता नहीं कहां उड़ चुकी थी।

अजीब बात थी, हम लोगों की एक जोड़ा नाकें जाम हो चुकी थीं. रातरानी के पौधे ने अपनी जगह बदल दी थी या हवा ने अपना खेल कर दिया था। रातरानी की महक नहीं मिली। पुल के चारों कोनों पर पेशाब की आंखों में आंसू ला देने वाली तीखी झार थी। बस एक क्वार्टर के आधे में इतना नशा कि मैने सैंडिल उतार कर अपना पुराने करतब का यांत्रिक अभ्यास शुरू कर दिया यानि पुल की रेलिंग पर नंगे पैर चलने लगा। गोल रेलिंग पर चलना कठिन था। मेरा मानना था कि मैं ऐसा अक्खड़ शराबियों की तरह, यह जांचने के लिए ऐसा करता हूं कि कहीं नशे में तो नहीं हूं। दादा का पुराना विश्लेषण था कि मुझमें आत्महत्या करने के लिए जरूरी साहस का अभाव है जो शराब से थोड़ी मात्रा में मिलता है और मैं ऊची जगहों की तरफ इसीलिए खिंचता हूं और वहां इस तरह चलते हुए मरने के लिए किसी अनायास गलती की प्रतीक्षा करता हूं। वे तटस्थ भाव से देखते रहे। बस एक बार कहा, चूतियाराम जो आप कर रहे हैं, सर्कस में उसके लिए चवन्नी तक नहीं मिलती। वे रेजीडेंसी की मीनार, ओसीआर की छत अन्य तमाम जगहों पर नशे के क्षेत्र में प्रगति के दौरान इसे देखने के अभ्यस्त हो चुके थे।

अपनी तलाश में- 3


रूद्रप्रयाग जा रही रोडवेज की खटारा बस की सीट के नीचे बैग रख रहा था कि कातर भाव से आकाश ताकते दादा पर नजर पड़ी. कई दिन बाद अचानक याद आया कि उन्हें हार्निया है, डाक्टरों के कहने के बावजूद जिसका आपरेशन वे कई साल से कभी खर्चा, कभी काटा-पीटी का डर, कभी अब कितने दिन बचे हैं के बहानों से टालते आ रहे थे. वह बस के दरवाजे की पहली सीढ़ी से झटका खाकर उतरने के बाद अपने साबुत हाथ से जोर देकर, धीरे- धीरे अपने पेट के निचले हिस्से को सहलाते हुए खांस रहे थे. पहली बार मुझमें अपराध का भाव भरने लगा यह मैं उन्हें कहां लिए जा रहा हूं। मैने कहा- रहने दीजिए, लौट चलिए वहां हर दस कदम पर आयरन करना पड़ेगा. खांसी पर काबू पाकर, सायास खिलायी मुस्कान के साथ उन्होंने अपना दूसरा हाथ मुंह के सामने उठाकर हिलाया जिसका मतलब था पंजा लड़ाओगे। उनका एक हाथ जन्म से कमजोर था और उस पर एक आंदोलन, जिसका नारा था- यूपी के तीन चोर, मुंशी, गुप्ता, जुगुलकिशोर, के दौरान लाठी भी पड़ चुकी थी. गुप्ता, पूर्व मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता यानि टप्पू उर्फ बसपा के बनिया नेता और उद्योगपति अखिलेश दास गुप्त के पिता के किस्सों का उनके पास खजाना था.
बस चलने के आधे घंटे तक बच्चा भाव से अच्छा-अच्छा चला। सामने क्या देवदार के पेड़ दिख रहे हैं। नहीं-अच्छा। क्या वहां ठंड बहुत तो नहीं होगी। नहीं-अच्छा। पहाड़ के रास्ते पर हैं कहीं ड्राइवर खाई में तो नहीं गिरा देगा। नहीं-अच्छा।
उन्हें खिड़की के पास बिठाकर मैं पीछे जाकर बस के खलासी से गपियाने लगा। अब उनका पजेसिव भाव जगा और खड़े होकर पूरी बस को सुनाते हुए बोले- सुनिए मिस्टर आप हमारे टूर आपरेटर नहीं है, हम लोग साथ घूमने जा रहे हैं इसलिए यहां आकर मेरे पास बैठिए। मेरे सामने वैसा करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। श्रीनगर से थोड़ा पहले एक ढाबे पर मैने खलासी के भी खाने के पैसे दे दिए तो फिर वे उखड़े और सीधे उससे बोले- इनके पास खुद भूंजी भांग नहीं है और कांग्रेसियों की तरह कांस्टीच्युएंसी बना रहे हैं. आप अपने पैसे खुद दीजिए। खलासी आत्मसम्मान बचाने के लिए ड्राइवर होने के रास्ते पर था उसने सहज हंसते कहा दादाजी हमने कब कहा कि हम गंगू तेली नहीं हैं। रास्ते में श्रीनगर यूनिवर्सिटी के सामने बस थोड़ी देर को हमने देश की शिक्षा व्यवस्था कस-कस कर कई लातें लगाईं, मास्टरों को चोर वगैरा बताया, पहाड़ के कई छात्र नेताओं के नाम याद करते हुए लड़के-लड़कियों के कैरियरिस्ट, नापोलिटिकल और जूजू हो जाने पर थोड़ा अफसोस जाहिर किया बाकी घुमावदार, हरी ठंडक थी जिसने शांति व्यवस्था कायम रखने में भरपूर योगदान दिया।

जब रूद्रप्रयाग पहुंचे तो दिन तकरीबन ढल चुका था और गुप्तकाशी से आगे हमारी मंजिल की तरफ जाने वाली आखिरी बस आंखों के सामने निकल गई। हम लपके लेकिन दिन भर बैठे रहने के कारण जोड़ जाम हो चुके थे और बस, बस सरक ही गई।

पहाड़ मे पहला दिन मैं सेलीब्रेट करना चाहता था लेकिन दादा किसी और गुनताड़े में थे. अभी आया कह कर निकल लिए। बस अड्डे पर मैने तीन चाय पी, घुन लगी मठरियां अखबार में लपेट कर दादा के बैग में रखने के बाद उसे दुकानदार के हवाले करने के बाद कस्बे की इकलौती दारू की दुकान लोकेट की, पुल पर जाकर नदी देखी तब कहीं जाकर वह प्रकट हुए इस खबर के साथ कि चलो एक आलीशान होटल मिल गया है। सामान रख कर फिर घूमा जाएगा। यह एक घर के ऊपर अधबना लॉज था जिसकी दीवारों पर उसका मालिक टोपी लगाए तराई कर रहा था। जो कमरा हमें मिला शायद उसका फर्श एक हफ्ता पहले ही बना था। किराया तीस रूपए।
मैने कहा दादा आपने तो कमाल कर दिया इसलिए सौ रूपए ढीले कीजिए ताकि दारू का बंदोबस्त किया जा सके। आपने दो सौ रूपए का शुद्ध मुनाफा कमाया है। दादा हल्के गरूर के साथ बोले कि कम्युनिस्ट राजनीति जो व्यावहारिकता सिखाती है उसमें से एक यह भी हैं. और यह मुनाफाखोरी नहीं सिर्फ सीमित संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए शोक को शक्ति में बदलने की कला है। मिडिल क्लास बोरजुआजी की तरह हद से हद इसे बचत कह सकते हो। लंबी झिकझिक के बाद पचास रूपये मिले।

अपनी तलाश में- 2


इस ट्रैवलाग ने एलानिया कहानी बनने की तरफ पहला गोता मार दिया है। लेकिन मैं इसे पूरी ताकत लगाकर कहानी होने से बचाना चाहता हूं क्योंकि हमारे जीवन का यथार्थ कहानी से कहीं ज्यादा दिलफरेब है। कहानियां जो कभी आत्मा की खुराक हुआ करती थीं से दूरी का कारण भी यही है। खासतौर से इन दिनों की हिन्दी की कहानियां पता नहीं किस लोक की हैं। उनमें हमारा जीवन नहीं है जिनका है वही पढ़ते भी होंगे। हिन्दी बोलने वाले तो नहीं पढ़ते।

मिसाल के तौर पर यही देखिए कि अवसाद दिखाने के लिए मैंने लिख मारा है कि रेल के डिब्बे में चालीस वाट का पीला लट्टू जल रहा था। हमारी ट्रेनों में चालीस वाट के बल्ब नहीं लगते। किशोरावस्था के चिबिल्लेपन में अपना होना साबित करने के लिए गाजीपुर जिले के सादात स्टेशन से माहपुर रेलवे हाल्ट के बीच मैने दर्जनों बल्ब चुराए हैं और होल्डर में ठूंसने के बाद उन्हें फूटते देखा है। अब अगर कोई एमएसटी धारक पाठक यह नतीजा निकाले कि यह संस्मरण लिखने वाला कल्पना के हवाई जहाज पर चलता है लेकिन उसने ट्रेन में कभी सफर नहीं किया है तो मुझे पिनपिनाना नहीं चाहिए।


....``बिना मकसद बताये यात्रा के लिए चंदा बटोरा गया और अखबार के दफ्तर से तनख्वाह भी मिल गयी थी।´´ किस अखबार के दफ्तर से लेखक बेटे!

इन दिनों स्मृति मेरे साथ यह खेल कर रही है मैं जिस घटना को याद करना चाहता हूं मुझे उससे तीन-साढ़े तीन साल पीछे के समय में ले जाकर खड़ा कर देती है, घटनाएं अपनी जमीन से उजड़ कर प्रवासियों की तरह नई ही दिशा में चल पड़ती हैं। यह कुछ वैसा ही है जैसे कि विपाशा बसु बीड़ी फूंकते हुए बताएं कि उनकी पहली फिल्म बावरे नैन थी जिसमें कन्हैया लाल के अपोजित उन्होंने एक नटखट विधवा का रोल किया था।
उन दिनों की एक डायरी पलटने से पता चला कि मैं एक साल से बेरोजगार था। एक मित्र की छत पर बने अकेले कमरे में दरी पर सोता था। हर सुबह आत्मसम्मान के बोझ और घर से उठती खाने की खुशबू न झेल पाने के कारण दबे पांव वहां से निकल लेता था। कभी कभार पकड़ कर नाश्ते की मेज पर बिठा दिया जाता था तो एक संत की तरह बड़ी-बड़ी बातें ठेलता हुआ नाम मात्र का मुंह जूठा कर लेता था। वहां से दादा की दुकान के बीच सात किमी के पैदल पथ में ठेले का सबसे मोटा खीरा या भुट्टा कुतरते हुए चला जाता था। कभी-कभार चेतना पुस्तक केन्द्र खुलने से पहले ही पहुंच जाता था मानो दुनिया में मेरा कोई और ठिकाना ही नहीं था। कोई ग्यारह बजे तक दुर्गा दादा एक धूपी चश्मा आंख पर चढ़ाने के बाद अपने पैर काउंटर पर पसार देते थे और मैं उनकी कुर्सी की टूटी हुई पीठ, किताबों की रैक पर टेक कर फर्श पर पसर जाता था। बहुत बिरले सुखद हस्तक्षेप सा चमत्कार घटता कि कोई लड़की उनकी घिसी पतलून से निकले उनके ढीठ पैरों को तरेरती हुई योगा या कुकरी की किसी किताब का नाम बताती। दादा को मानो मुंहमांगी मुराद मिली। वे क्षण भर का सेल्समैन बनने को आतुर मुझे देखते फिर पैर हिलाते एक-एक शब्द का मजा लेते हुए कहते- ``कुकरी-फुकरी नहीं मैडम यहां सोशल चेंज की किताबें मिलती हैं, इफ यू डोंट माइंड, ट्राई टू अंडरस्टैंड वी आर इन बिजनेस ऑफ रिवोल्यूशन´´हड़बड़ाती लड़की की जाती हुई पीठ देखते हुए स्वगत बड़बड़ाते, साली कुकुरी, पता नहीं कहां-कहां से चपंडक चले आते हैं यहां, क्या जमाना आ गया है।
मुझे लगता कि उनके चेहरे पर लगभग, अवश्य, संतुष्ट, कपट मुस्कान है और मैं किसी किताब में और धंस जाता। अक्सर यह कोई दोस्तोवस्फी, सोलोखोव, मायकोवस्की नहीं कॉमिक्स या बाल कविता की किताब होती थी। इतना क्षेपक इसलिए कि जरा सी चूक से इस यात्रा में अभी कहानी के सलमे-सितारे सज चुके होते और उसमें से जीवन का वह अवसाद घुला, खिन्न और कठिन समय भाग खड़ा होता। तब हाथी घोड़ा पालकी फिर उसी तुक में जय कन्हैया लाल की बताने के सिवा और बचता ही क्या?

डायरी के मुताबिक यह 15 सितंबर 2000 की खुनकी भरी सुबह थी।

तो अब हिसाब भी दुरूस्त कर लिया जाये। दुर्गा दादा की जैकेट के नीचे कुर्ता था। कुर्ते के नीचे बंडी थी जिसमें दिल के ऊपर गुप्त जेब थी। गुप्त जेब में साढ़े आठ सौ के आसपास रूपए जतन से रखे थे। यकीन मानिए यह सबसे बड़ी रकम थी जो हाल के वर्षों में उन्होंने देखी होगी। उन्हें करीब 600 रूपए हर महीने पार्टी वेज देती थी और हर शाम को शटर गिराने से पहले हिसाब मैं ही जोड़ता था। हर दिन क्रांतिकारी विचारधारा के मानवीय व्यापार में बिक्री का औसत हर दिन बीस से साठ रूपए के बीच रहता था। मेरी जेब में कुल साठ-पैंसठ थे। टूर आपरेटरों की गाइडपना जताती लनतरानियों और टैक्सी ड्राइवरों की बकबक के बीच हम रूद्रप्रयाग जाने वाली सरकारी बस तलाश रहे थे जिसका किराया सबसे कम हो। दो दुनिया से नाराज, बुरी तरह उकताए दोस्त...एक बेरोजगार पत्रकारनुमा युवा और एक बूढ़ा कामरेड आतुर भाव से पहाड़ों की रहस्यमय झिलमिली को ताक रहे थे। क्या पता वहां जिंदगी वैसी दमघोंटू न हो?

अपनी तलाश में- 1


मुझे आजकल लगता है कि मैं कोई जमाने से यहीं खड़ा, हवा चले न चले सिर पटकता पेड़ हूं। या कोई धूल से अटी पिचके टायर वाली जीप हूं जिसके स्टीयरिंग का पाइप काटकर मेरे गांव छोकरे लोहार से कट्टा बनवाने की सोच रहे होंगे। या कोई हिरन हूं जिसकी सींगों को तरास कर, भुस भर दिया गया है और जिसकी कांच की आंखों में उजबकपन के सिवा कोई और भाव नहीं है।

कभी लगता है कि बीमार, मोटे, थुलथुल, सनकी, भयभीत और ताकत के नशे मे चूर लोगों से भरे एक जिम में हूं। पसीने और परफ्यूम की बासी गंध के बीच मुझे एक ऐसी मशीन पर खड़ा कर दिया गया है जिस पर समय लंबे पट्टे की तरह बिछा हुआ है। मैं उस पर दौड़ रहा हूं, पसीने-पसीने हूं, हांफ रहा हूं लेकिन वहीं का वहीं हूं। कहीं नहीं पहुंचा, एक जमाना हुआ। समय का पट्टा मुझसे भी तेज भाग रहा है। अगर मैं उसके साथ नहीं चला तो मशीन से छिटक कर गिर पड़ूंगा और कोई और मेरी जगह ले लेगा। मैं थक रहा हूं यानि समय जरूर कहीं न कहीं पहुंच रहा है। मैं लोगों को चलने का भ्रम देता आदमी का एनीमेशन हूं (यह सिर्फ मुझे पता है।)

जमाना हुआ, मैं कहीं गया ही नहीं। कई बार सपनों में बेहद तेज हूक उठी लेकिन वह नींद में ही मर गई।

आखिरी बार मैं शायद रिपोर्टरी के धंधे के चलते शायद जबलपुर गया था एक राजनीतिक पार्टी का सम्मेलन कवर करने। लेकिन वह जाना इतना प्रायोजित, समय का पाबंद, वातानुकूलित, अल्कोहलमय था कि कुछ महसूस ही नहीं हुआ। यहां तक कि आधीरात को भेड़ाघाट का धुआंधार और आधारताल में ज्ञानरंजन महाशय का घर खोजने की असफल कोशिश में भी कुछ नहीं था। सड़के, सड़क जैसी थी, बत्तियां बत्तियों जैसी और वहां के आदमी यहां के आदमियों जैसे और क्या? वह नमक के एक बोरे का रेलगाड़ी पर लदकर जबलपुर जाना और आना था। रास्ते में जिनसे बात हुई उन सबने इसे थोड़ा-थोड़ा चखा और कहा कोई खास बात नहीं नमक जैसा ही लगता है।

दुर्गा दादा में भी यह अम्ल बहुत था। नसों में बहता और मुंह से भभकता सलफ्यूरिक एसिड। उन दिनों थकी कम्यूनिस्ट पार्टी की कराहती किताबों की दुकान चलाते थे। दिन भर वही भभकेः जमाना खराब, दुनिया खराब, लोग हरामजादे मक्कार, संसद सुअरबाड़ा, पार्टी के नेता सब उसी की नौकरी बजा रहे हैं। चाची भी चार बात सुनाती हैं, बच्चे भी ढंग से बात नहीं करते। सारे अच्छे लोग गुजर गए। हियां अब जी घबराता है, अनिल निकालो हमको यहां से ले चलो कहीं जहां आदमी और आदमी की जात से मुलाकात न हो।

दुर्गा मिसिर की एक खास बात। सारे दिन काउंटर पर बैठे-बैठे अपने मरे कामरेडों और दोस्तों की लिस्ट बनाया करते थे और शाम को शटर गिराते समय फाड़ कर फेंक देते थे। कुल उनसठ नाम-कभी अंग्रेजी में कभी एकाध चेहरे का चेहरा या फूल भी, अक्सर उलझी रेखाओं की गोंजागोंजी। मुझमें भी नकार ही भरा था दुनिया के लिए। यही शायद साठ पार के दुर्गा से मेरी दोस्ती का धागा रहा होगा।

दुर्गा दादा एक दिन घर से अपना गांधी आश्रम वाला पुराना गाउन उठा लाए और दोपहर में पहन कर दुकान में खड़े हुए। एक हाथ से पकड़ कर दूसरे को सिर तक उठाया और उकताकट से फटती आवाज में बोले, बच्चा अब यहां से कहीं चलो।

सबसे पहले हम लोग आंख का आपरेशन करा कर अस्पताल मे पड़े महात्मा हरगोविंद के यहां गए। देखने का बहाना था। हालचाल नहीं चाभी लेने। केदारनाथ के रास्ते में झोसी गांव में उनका दो कमरों का एक घर था जिस पर शायद अब भी पत्रकार आश्रम की तख्ती लगी होगी। उनको मरे दो साल हो रहे हैं। कभी आजादी के मूल्यों के पतन से क्षुब्ध महात्मा वहां रहकर अध्यात्म की सस्ती, उपयोगी किताबें लिखते थे, खुद गुलाब के कलाकंद और अपना च्यवनप्राश बनाते थे और गाय-बकरियां चराते हुए कच्चे अखरोट फोड़कर चबाने वाले बच्चों से बतियाते थे।

चाभी मिलने के बाद किराया जुटाने की बात आई। किताब की दुकान पर आने वाले दोस्तों से बिना मकसद बताए चंदा बटोरा गया और इसी बीच अखबार के दफ्तर से तनख्वाह भी मिल गई। रिजरर्वेशन हो गया और हम लोग एक दिन दो झोले और कुछ किताबें लेकर चल पड़े। निकलते समय मैने गौर किया दुर्गा दादा बेहद हड़बड़ी में थे। डिब्बे में घुसने के लिए अपना बैग घसीटते हुए इतना झटके से भागे कि गिर पड़े, उठे और बैग वहीं छोड़कर डिब्बे में घुस गए। पता नहीं क्या सोचकर फिर उतरे और अपना बैग उठाया। दरअसल हम लोग कहीं घूमने नहीं जा रहे थे। यह दुनिया के शोर, कमीनगी और धूसरपन से छूटने की यात्रा थी। हमें निविड़ एकांत में जाकर महसूस करने की बेहद जल्दी थी कि इसी दुनिया में इतने सालों से बेमन से रहते-रहते हम कितने बचे रह गए हैं। वहां ऊपर पहाड़ के निर्जन में हमारा एक टेस्ट होना था और उसमें मिले नंबरों के आधार पर जीवन आगे चलना या नहीं चलना था।

अपनी बर्थ पर बैठने के दस मिनट बाद, अपने पड़ोसी यात्री से उन्होने राधा छाप तमाखू की पुडि़या फड़वा कर अपनी हथेली पर रखवाई और फांकने के बाद लगभग घोषित कर दिया अब पब्लिक पूरी तरह नानपोलिटिकल हो चुकी है। पहले ट्रेन, बस वगैर जो सफरी बहस का माहौल था वह मंडल-मंदिर यानि जाति-धर्म की पार्टियों और उनके चाकर मीडिया ने साजिशन खत्म कर डाला है। अब कुछ बचा नहीं है।

ये लोग आदमी हैं, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के खिलौने नहीं कि कामरेड माओ खटका दबाएंगे और खट-खट बहस शुरू हो जाएगी।- मैने चिढ़कर कहा।

डिब्बे में बेहद भीड़ थी, बस एक चालीस वाट का पीला लट्टू था। इसके सिवा कुछ नहीं था। रहा भी होगा तो हम देखना नहीं चाहते थे। ट्रेन बहुत धीरे चल रही थी। हम तेज चल रहे थे। अपने भीतर न जाने कहां-कहां गए और पस्त होकर सो गए।

अगले दिन ऋषिकेश के बस स्टैंड से क्षितिज पर पहाड़ की झिलमिली दिखी तो दुर्गा दादा फिर उफनाए जो पहिली बस मिले निकल लो अब यहां के चूतिया-चर्खे में फंसने का कोई काम नहीं है।

Thursday, November 5, 2009